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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


वैश्या की लड़की

इससे सुमित्रा को बड़ा दुःख हुआ। वे उठते-बैठते चन्द्रभूषण से इस बात का आग्रह करने लगी कि वे प्रमोद को स्वयं लेने जाएँ, उसे मनाने में उनकी प्रतिष्ठा न कम पड़ेगी। दशरथ ने बेटे के लिए प्राण दे दिए थे। यहाँ तो जरा से सम्मान की ही बात है। पिता का हृदय तो स्वयं ही पुत्र के लिए विकल हो रहा था। वे तो स्वयं चाहते थे। अब सारी जिम्मेदारी सुमित्रा के सर पर छोड़कर वे पुत्र को मनाने चले। कहीं छाया पैर छूने आई तो ?...लाख वेश्या की लड़की है पर अब तो मेरी पुत्र-वधू है।...क्या मैं ख़ाली हाथ ही पैर छुआ लूँगा?...सराफे की ओर घूम गए। वहाँ एक जोड़ी जड़ाऊ कंगन खरीदे और जेब में रखकर दस कदम भी न चल पाए थे कि सामने से प्रमोद आते हुए दिखे।

चन्द्रभूषण के पैर रुक गए, प्रमोद भी ठिठके। झुककर उन्होंने पिता के पैर छू लिए। चन्द्रभूषण की आँखों से गंगा-जमुना बह निकली । प्रमोद के भी आँसू न रुक सके। दोनों कुछ देर तक इसी प्रकार आँसू बहाते रहे । कोई बातचीत न हुई? अंत में, गला साफ करते हुए चन्द्रभूषण ने कहा, घर चलो बेटा! तुम्हारी अम्मा रात-दिन तुम्हारे लिए रोया करती है।
प्रमोद ने कोई आपत्ति न की। चुपचाप पिता के साथ घर चले गए।

उस दिन वे बहुत रात घर लौटे। उनकी बाट जोहते-जोहते छाया भूखी-प्यासी सो गई थी। जब प्रमोद अपने कमरे में पहुँचे तो बारह बज रहे थे। इस समय छाया को जगाना उन्होंने उचित नहीं समझा। विलंब से लौटने का दुःख था, जबकि वे भोजन कर चुके थे और छाया उनकी प्रतीक्षा में भूखी ही सो गई थी। उन्हें छाया के ऊपर दया आई, उसके सिर पर हाथ फेरते-फेरते वे नींद की प्रतीक्षा करने लगे। छाया गाढ़ी निद्रा में सोई थी। उसके चेहरे पर कभी हँसी और कभी विषाद की रेखा खिंच जाती थी। प्रमोद यह देख रहे थे। आज उन्हें अपने कटु व्यवहार तीर की तरह चुभने लगे। इसी सोच-विचार में वे सो गए। छाया की भी नींद खुली; घड़ी की ओर देखा डेढ़ बज रहे थे। पास ही प्रमोद सुख की नींद ले रहे थे। वह बड़ी व्याकुल हुई, उसने अपने आपको न जाने कितना घिक्कारा, ऐसी नींद भी भला किस काम की? वे आए और भूखे-प्यासे सो रहे और यह निगोड़ी आँखें न खुलीं! यह सदा के लिए बंद न हुई थीं न? कभी-न-कभी खुलने के ही लिए तो मुँदी थीं? फिर खुलने के समय पर क्यों न खुलीं?'...इसी प्रकार अनेक विचार उसके मस्तिष्क में आ-आकर उसे विकल करने ल्गे। छाया फिर सो न सकी। बाकी रात उसने करवट बदलते ही बिताई।

सवेरे उठकर उसने प्रमोद का कोट टटोला। उसकी जंजीर ज्यों-की-त्यों पड़ी थी। दूसरी जेब में पच्चीस रुपए भी थे, जंजीर बेची भी नहीं, गिरवी भी नहीं रखी; फिर ये रुपए कहाँ से आए? प्रयत्न करने पर भी छाथा इस उलझन को न सुलझा सकी।

सवेरे प्रमोद सोकर उठे तब उनका चेहरा और दिनों की अपेक्षा अधिक प्रसन्‍न था। उठने पर उन्होंने छाया से पिता की मुलाकात, अपने घर जाने की बात और वहाँ के सब लोगों के व्यवहार और बर्ताव सभी बतलाए। छाया सुनकर प्रसन्‍न हुई, किंतु उस घर में छाया भी प्रवेश कर सकेगी या नहीं, न तो इसके विषय में प्रमोद ने कुछ कहा और न ही छाया को पूछने का साहस हुआ। अब प्रमोद की दिनचर्या बदल गई थी। वह सबेरे से उठते ही अपनी माँ के पास चले जाते, वहीं हाथ-मुँह धोते, वहीं दूध पीते; फिर अखबार पढ़ते-पढ़ाते; मित्रों से मिलते-जुलते वे करीब ग्यारह-बारह बजे घर लौटते। इस समय उन्हें घर आना ही पड़ता, क्योंकि छाया उन्हें भोजन कराए बिना खाना न खाती थी। छाया को अब प्रमोद के सहवास का अभाव बहुत खटकता था। किंतु वह प्रमोद से कुछ कह न सकती थी। वह कुछ ऐसा अनुभव करती थी जैसे प्रमोद के चरणों पर अपना सर्वस्व निछावर करके भी वह प्रमोद को उस अंश तक नहीं पा सकती है। जितना एक सहधर्मिणी का अधिकार होता है।

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